पास्बान-ए-उर्दू

कहें न क्यूँ ऐ क़वी तुझे हम ब-सिदक़-ए-दिल पासबान-ए-उर्दू
बना है तेरी ही सई-ओ-काविश से सैफ़िया गुलसितान-ए-उर्दू

नफ़स नफ़स में तिरे यक़ीनन बसी है बू-ए-ज़बान‌‌‌‌‌-ए-उर्दू
तिरी नवा है नवा-ए-उर्दू तिरा बयाँ है बयान-ए-उर्दू

दिखाईं भोपाल को तिरे ही जुनूँ ने जहद-ओ-अमल की राहें
वगर्ना मायूस हो चुके थे यहाँ के चारा-गरान-ए-उर्दू

वजूद तेरा सभी के हक़ में है चशमा-ओ-आबशार-ओ-दरिया
बुझाते हैं प्यास अपनी अपनी तुझी से सब तिश्नगान-ए-उर्दू

इसे ज़माना-शनासी तेरी न हम कहेंगे तो क्या कहेंगे
बना दिया 'सैफ़िया' को तू ने जो एक दारुल-अमान-ए-उर्दू

तुझी से शहर-ए-ग़ज़ल को इक़्बालियात की मंज़िलें मिली हैं
तिरे ही अज़्म-ओ-अमल से है गामज़न यहाँ कारवान-ए-उर्दू

तिरा उजाला मिटा रहा है शब-ए-जहालत की तीरगी को
चमक रहा है तू बन के भोपाल में मह-ए-आसमान-ए-उर्दू

खिलाए हैं शाख़ शाख़ तू ने यहाँ पे नुत्क़-ओ-नवा के ग़ुंचे
ग़लत नहीं है जो कह रहे हैं सभी तुझे ख़ुश-बयान-ए-उर्दू

तिरे अज़ाएम की इस्तक़ामत पे सर-ब-कफ़ हैं हरीफ़ तेरे
ख़ुशा कि तेरे जवान हाथों में आज भी है कमान-ए-उर्दू

सद-आफ़रीं तेरी हिम्मतों पर सद-आफ़रीं तेरी जुरअतों पर
सुनाई है बज़्म-ए-ग़ैर में तू ने बारहा दास्तान-ए-उर्दू

ये कम नहीं है कि मो'तरिफ़ है तिरी बसीरत का ये ज़माना
रहा है सदहा ख़ुलूस-ए-दिल से तू शामिल-ए-आशिक़ान-ए-उर्दू

रवाँ हैं तक़रीर और तहरीर से तिरी आगही के चश्मे
तिरा क़लम है वक़ार-ए-उर्दू तिरी ज़बाँ तर्जुमान-ए-उर्दू

मुजल्ला 'ग़ालिब' पे कर के शाए किया है बे-शक कमाल तू ने
जहान-ए-इल्म-ओ-अदब के हक़ में है ख़ूब ये अरमुग़ान-ए-उर्दू

नए नए गुल खिला रहा है अदब में तेरे क़लम का जादू
तिरी फ़रासत के मो'तरिफ़ हैं तमाम-तर नुक्ता-दान-ए-उर्दू

अगरचे राहों में तेरी हाइल हुए हैं दीवार बन के अक्सर
मगर तिरे अज़्म-ओ-हौसला से ख़जिल हैं सब हासिदान-ए-उर्दू

ये तेरी कोशिश हिफ़ाज़तों की ये तेरा जज़्बा सलामती का
न हो तो उर्दू को बेच खाएँ ज़रा में ये ताजिरान-ए-उर्दू

मिसाल-ए-ख़ुरशीद तू ने बख़्शी है रौशनी जिन को इल्म-ओ-फ़न की
चमक रहे हैं अदब के गर्दूं पे बन के वो अख़्तरान-ए-उर्दू

जो तेरे फ़न के अमीन बन कर फ़ज़ा-ए-आलम प छा गए हैं
बड़ी अक़ीदत से देखते हैं तुझे वो शाइसतगान-ए-उर्दू

उजाला करते रहेंगे यूँही चराग़ बन कर रह-ए-तलब में
हर इक क़दम पर जो तू ने छोड़े हैं जगमगाते निशान-ए-उर्दू

कहा है तू ने भी बारहा ख़ुद यहीं पली है यहीं बढ़ी है
किसी ज़बाँ की हरीफ़ हरगिज़ यहाँ नहीं है ज़बान-ए-उर्दू

तिरे जिहाद-ओ-अमल के सदक़े यक़ीन है ऐ क़वी ये हम को
इसी तरह तू बना रहेगा यहाँ सदा पासबान-ए-उर्दू


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