समाँ सुहाना था ठंडी हुआ के झोंकों से बदन को ताज़गी मिलती थी रूह में जैसे इज़ाफ़ा होता सा महसूस हो रहा था मुझे फ़ज़ा में उड़ते हुए मस्त अब्र के टुकड़े ये लग रहा था बहारों के हैं फ़रिस्तादे ख़याल आया कि मौसम का लुत्फ़ लें सब दोस्त मरे तो जाते हैं जीने को आज खुल के जिएँ अज़ीम शहर की आलूदा इस फ़ज़ा से परे कहीं भी मिल के चलें साथ बैठें खाएँ पिएँ मिरा पड़ोसी बड़ा प्यारा आदमी था उसे गली में आन के आवाज़ दी ग़ुलाम-रसूल मअ'न मुझे ये ख़याल आया मेरा हम-साया अब इस जहाँ में नहीं बन चुका है वक़्त की धूल जो पिछले साल अचानक भड़क उठे थे यहाँ वो फ़िरक़ा-वारी फ़सादात खा गए उस को