तुम नहीं हो मिटने वाली नहीं पाती हो जनम तुम नए नए हर नई बहार के फूलों में मानिंद-ए-हयात तुम्हारे पत्ते भी पीले पड़ जाते हैं मानिंद-ए-हयात तुम्हें भी ढक देती है बर्फ़ पर तुम्हारी मिट्टी में प्रीति पक्के बचनों के बीज दबे हैं पूरा होना है जिन को बसर अवे में भी पीत न करने की ये धुन बे-कार है ये महकार भरा झोंका लौट आता है एक न एक दिन आत्म नगर में जैसे रात सितारों भरी और समाने लगती हो तुम रोम रोम में प्रीति पहले से पाकीज़ा तुम पाक हो और इसी कारन हुआ अमर जब तुम होती हो तब नीलाहट से झुण्ड के झुण्ड सफ़ेद मुलाएम हंसों के जिन को हम मरे-खपे समझे थे लौट आते हैं फूल फूल से पत्तियाँ खिलाती रहती हो तुम नई नई तुम सदा सदा के नूर को राग बना देती हो नई नई आवाज़ों से जन्मा हुआ राग तुम अमर हो प्रीति जैसे बहार