मैं जिस में रहती हूँ मेरा घर है यहाँ की दीवार-ओ-दर के अंदर मिरी जवानी के ताने-बाने हर इक रग-ए-संग में रवाँ हैं यहाँ पे निखरी हुई सफ़ेदी मिरे बुढ़ापे की आने वाली सहर का एलान कर रही है यहाँ की छत मेरे दिल से निकली हुई दुआ है जो बारगाह-ए-ख़ुदा में मक़्बूल हो के साया किए हुए है यहाँ की खिड़की यहाँ के रौज़न मिरी ही आँखों के ख़्वाब हैं कुछ में रौशनी कुछ बुझे बुझे हैं यहाँ पे कुछ लोग रह चुके हैं यहाँ पे कुछ लोग रह रहे हैं हमारे माबैन क्या है माज़ी के राब्ते हैं वो राब्ते जिन पे सिर्फ़ मेरी गिरफ़्त महफ़ूज़ रह गई है जभी तो ऐसा हुआ है अक्सर मैं अपने हाथों को ख़ुद झटक कर निकल पड़ी ऐसे रास्ते पर जो बाल से भी महीन तलवार की तरह तुंद ओ मुर्तइश था मैं कट के गिर जाना चाहती थी बिखर के मर जाना चाहती थी मगर न-जाने मुझे हुआ क्या! बजाए इस के कि नीचे देखूँ मिरी इन आँखों ने पीछे देखा वहीं जहाँ एक घर खड़ा था वो जिस की खिड़की वो जिस के रौज़न मिरी ही आँखों के ख़्वाब थे, कुछ में रौशनी, कुछ बुझे बुझे थे!!