फ़सुर्दा रात सितारों के क़ाफ़िलों को लिए ख़मोश राहों की ख़्वाबीदा मस्तियों को सलाम न जाने कौन सी मंज़िल को है रवाँ कब से तमाम दहर पे साया-फ़गन ये रात जिसे किया है मैं ने मुक़द्दर ख़याल-ए-ग़मगीं का इक एक अश्क से रह रह के जिस को धोया है उदास उदास सुरीले सुरीले नग़्मों से इक एक नक़्श सँवारा है जिस के चेहरे का कभी जो लम्हा तसव्वुर से छू गया कोई ग़म-ए-ख़याल बना कर समो दिया जिस में जो अपने साथ सितारों के क़ाफ़िलों को लिए न जाने कौन सी मंज़िल को है रवाँ कब से ये आगही का कोई ख़्वाब ही न हो वर्ना नज़र पुकार उठेगी कि अहल-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल तमाम सोच इसी रात का अँधेरा है