इक हक़ीक़त इक तख़य्युल नक़रई सी एक कश्ती दो मुनव्वर क़ुमक़ुमे इन पे मग़रूर थी इस ज़मीं की हूर थी किस क़दर मसरूर थी टूट जा आईने अब तेरी ज़रूरत ही नहीं नुक़रई कश्ती है अब बच्चों की इक काग़ज़ की नाव वो मुनव्वर क़ुमक़ुमे भी हो गए हैं आज फ़्यूज़ और सरापा बज़्म हूँ मैं कोई ख़ल्वत ही नहीं टूट जा आईने अब तेरी ज़रूरत ही नहीं