ख़ुदाई मेरे बातिन में उतरती सर्द शामों को किसी ता'बीर के मरक़द पे इक दिन छोड़ आएगी मिरे अशआ'र की तकरार से आजिज़ मेरे अल्फ़ाज़ के टुकड़ों से अपनी आहनी दीवार और शजरे सजाएगी ख़ुदाई मुझ से मुझ को छीन कर अपना बनाने की तमन्ना में मिरे हाथों से मेरी उँगलियाँ काटेगी मेहनत से और उस पर फ़िक्र का कलिमा सुनाएगी ख़ुदाई जानती है गर्दनों पर वार करना जुर्म है सो ये मिरी आँखों में अपनी पुतलियाँ भरने की कोशिश में अधूरे तजरबों को आज़माएगी मिरे पैरों तले से छीन लेगी फ़र्श मेरा और मुझे क़ालीन पर चलना सिखाएगी ख़ुदाई मेरे काँधों पर सफ़र तबरीक का तय करती जाएगी तसव्वुर के मकानों में मिरे किरदार का इक बुत बनाएगी खुली आँखों समाअ'त से लदे कानों फ़साहत से भरे होंटों का इक ख़ामोश बुत जिसे छूना मनअ' होगा