शाम-ओ-सहर के मंज़र गहरी उदासियों के पर्दे गिरा रहे हैं वाक़िफ़ तो थीं हमेशा उन से मेरी निगाहें ओढ़े न थीं फ़ज़ाएँ यूँ कोहर की अबाएँ कुछ तो जो खो गया है शाख़-ए-नज़र पे दहका बर्ग-ए-हिना का शो'ला यूँ काँपता है जैसे मिटता कोई हयूला शाम-ओ-सहर से कोई मफ़रूर हो गया है सीने में मैं तक़ातुर