राख By Nazm << तीन शामों की एक शाम पिछले जनम की कथाएँ >> मिरे दोनों हाथों में कुछ भी नहीं राख है उम्मीदों की जो आख़िरी साअतों तक धुआँ दे रही थीं और आँसू..... लहू... और बचपन के दिन ये सब राख हैं मैं इस राख को अपने चेहरे पे मल के खड़ा हूँ Share on: