बैठा था एक रोज़ मैं आँगन की धूप में आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम-ए-ख़याल था सरगोशियों में वक़्त सुनाता था बार बार क़िस्से क़दीम क़ैसर-ओ-किसरा की शान के करता था वर्क़ वर्क़ हर इक दास्तान के मैं ने कहा कि हम-दम-ओ-हम-राज़-ओ-दीदा-वर मा-क़िस्सा-ए-सिकन्दर-ओ-दारा न ख़्वान्दा-एम कुछ ज़िक्र हो सबा का गुलों का शबाब का साग़र का मय-कदे का सुराही का नाब का कुछ बात हो बहार की बाराँ की धूप की ख़ुशबू की चाँदनी की फ़ज़ाओं की रूप की हो जाए कुछ मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू कुछ भूलने की फिर उसे पाने की जुस्तुजू कुछ पूछ मुझ से बाबत-ए-अफ़्क़ार-ए-दो-जहां अहवाल-ओ-इख़तियार-ओ-शिकायात-ए-दोस्तां जो जी में आए पूछ मगर इतना याद रख ''अज़ मा ब-जुज़ हिकायत-ए-मेहर-ओ-वफ़ा मपुर्स'' बोला कि तू ''रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार'' क्या जानता है बाबत-ए-इम्कान-ए-ज़िंदगी जीता है ज़िंदगी से पशेमान-ए-ज़िंदगी कुछ अपने दिल का हाल भी मालूम है तुझे ये वहशतें ये दर्द ये तन्हाइयों का बोझ ये हिजरतें ये कर्ब ये बेज़ारियों का रोग ये हसरतें ये रंज ये अफ़्सुर्दगी ये सोग सीना है दाग़ दाग़ जिगर लख़्त लख़्त है तू ख़ुद कहाँ है और कहाँ तेरा बख़्त है क़ुल्ज़ुम को एक क़तरे की ख़ातिर बहा दिया जो वक़्त ने दिया तुझे सब कुछ गँवा दिया एक बार मुड़ के देख कि क्या तेरा खो गया जागा तिरा नसीब तो तू ख़ुद ही सो गया अब हिज्र न विसाल न सौदा न सूद है लम्हे से भी क़लील ये तेरा वजूद है बाक़ी बचा है और क्या तेरे हिसाब में “नै हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में''