ख़ाली कमरे में मिरा रख़्त-ए-सफ़र रक्खा है चंद अरमान हैं पोशीदा निहाँ-ख़ाने में किर्चियाँ ख़्वाब की रक्खी हैं हिफ़ाज़त से कहीं और कुछ फूल छुपा रक्खे हैं अनजाने में ढूँढती फिरती रही रूह किसी साथी को दर-ब-दर ठोकरें खाता रहा पिंदार मिरा अपनी मिट्टी से भी उट्ठी नहीं सोंधी ख़ुशबू ग़ैर के देस में लुटता रहा संसार मिरा अजनबी आँखों में मानूस वफ़ाओं का चराग़ एक उम्मीद पे जलता रहा घुप रातों में जिस्म मिट्टी की तरह घुलता रहा पानी में रंग बे-रंग हुए जाते थे बरसातों में तेरी उम्मीद पे खोला हुआ दर रक्खा है ख़ाली कमरे में मिरा रख़्त-ए-सफ़र रक्खा है