वादी-ए-मजनूँ में आबरू-ए-ख़ून में रू-ए-सरशार-ओ-हसीं मंज़र-ए-शब के क़रीं मैं तुम्हें तरतीब दूँ क़ुर्ब की तर्ग़ीब दूँ अक्स की तारीफ़ में रस्म की तहरीफ़ में एक अफ़्साना कहूँ सुब्ह तक जलता रहा हूँ तुम ख़िराम-ए-नाज़ से नुत्क़-ओ-लब के साज़ से मर्ग-आसा जाँ-ब-लब जादा-ए-तारीक जब ज़िंदा-ओ-रौशन करो और लहरा कर चलो क़त्ल कर देना उसे अक्स जो तुम सा न था हर्फ़ जो मुझ सा न था जज़्ब-ए-शो'ला-ए-ख़ू न था रंग जो ख़ुश्बू न था