रस-भरे होंट फूल से हल्के जैसे बिल्लोर की सुराही में बादा-ए-आतिशीं-नफ़्स छलके जैसे नर्गिस की गोल आँखों से एक शबनम का अर्ग़वाँ क़तरा शफ़क़-ए-सुब्ह से दरख़्शंदा धीरे धीरे सँभल सँभल ढलके रस-भरे होंट यूँ लरज़ते हैं.....! यूँ लरज़ते हैं जिस तरह कोई रात दिन का थका हुआ राही पाँव छलनी निगाह मुतज़लज़ल वक़्त सहरा-ए-बे-कराँ कि जहाँ संग-ए-मंज़िल-नुमा न आज न कल..... दफ़अतन दूर.....! दूर..... आँख से दूर शफ़क़-ए-शाम की सियाही में क़ल्ब की आरज़ू-निगाही में फ़र्श से अर्श तक झलक उट्ठे एक धोका..... सराब..... मंबा-ए-नूर.....! रस-भरे होंट देख कर 'तासीर' रात दिन के थके हुए राही यूँ तरसते, हैं यूँ लरज़ते हैं.....!