रस्म-ए-अंदेशा से फ़ारिग़ हुए हम अपने दामाँ की शिकन में सिमटे कफ़-ए-अय्याम की पुर-पेच लकीरों में कहीं अपने आइंदा-ए-नादीदा से सहमे हुए हम गाह इज्माल-ए-गुज़िश्ता पे गुलू-गीर हुए जैसे धुल जाएगा बेचारी रिवायात के शानों का ग़ुबार चंद बीमार इरादों की अयादत चाही गाह नायाब दुआओं का शुमार और तक़रीर के पेचीदा सवालात को दोहराते हुए एक इक कर के सब अहबाब ने रुख़्सत चाही रस्म-ए-अंदेशा की तक़रीब-ए-मुलाक़ात से फ़ारिग़ हुए हम रस्म-ए-अंदेशा किसी और ज़माने का गुनाह और दुनियाओं का जुर्म जिस की ज़ंजीर-ए-मुकाफ़ात में उलझे हुए हम अपने अज्दाद के आसार के देरीना फ़क़ीर कासा-बर-दोश सर-ए-दस्त-ए-अता जाते हैं मौत बर-दोश सर-ए-दस्त-ए-अता जाते हैं मौत और वस्ल की ता'बीर पे सरगर्म-ए-कलाम अपनी तारीख़ का इंसाफ़ बजा लाते हैं रस्म-ए-अंदेशा की तारीख़-ए-मुकाफ़ात के मारे हुए हम