दो समुंदर जहाँ आपस में मिला करते हैं मैं ने कितने सहर ओ शाम गुज़ारे हैं वहाँ मैं ने देखी है निकलते हुए सूरज की किरन और कल होते हुए दिन की शफ़क़ देखी है मैं ने मौजों के तलातुम में गुहर ढूँडे हैं और पाए हैं ख़ज़फ़ रेज़े भी जाल पानी से जब इक बार निकाला मैं ने इक घड़ा रेत भरा हाथ आया सब्त थी मोहर-ए-सुलैमाँ जिस पर और खोला तो धुएँ का बादल पेट से उस के नुमूदार हुआ आदमी के लिए ये बेहतर है कि मुक़फ़्फ़ल ही रहें कुछ चीज़ें ये फ़ज़ाएँ ये सितारे ये फ़लक वक़्त-ए-गर्दां की मुसलसल टिक टिक जानवर कीड़े मकोड़े हशरात मछलियाँ और तुयूर और इंसान जो पहले दिन से आख़िरी रोज़ तलक मौत की सम्त चला करता है जुस्तुजू पर मुझे उक्साते हैं आह लेकिन ये तलाश कर गई और भी हैराँ मुझ को क्यूँ वो कश्ती हुई सूराख़-ज़दा जिस में हम रात को पार उतरे थे राह चलते हुए मुड़भेड़ हुई थी जिस से किस ख़ता पर वो जवाँ क़त्ल हुआ कितने बे-बहरा थे तहज़ीब से इस शहर के लोग जिन को आते न थे मेहमान-नवाज़ी के तरीक़ फिर भला किस लिए उन की ख़ातिर हम ने गिरती हुई दीवार को तामीर किया राज़ पर राज़ छुपा रक्खे हैं इक बूढ़े ने और हम हैं कि फिरा करते हैं हर लरज़ते हुए साए का तआक़ुब करते शम्अ की लौ जिसे हर आन बदल देती है दो समुंदर का जहाँ संगम है मैं ब-दस्तूर खड़ा रहता हूँ देखता हूँ कभी उड़ते हुए ज़र्रात का रक़्स कभी मौजों को सदा देता हूँ और अक्सर शब-ए-तन्हाई में बैठा बैठा उन जज़ीरों को तका करता हूँ जिन के जलते हुए, बुझते हुए मीनारा-ए-नूर मेरी मंज़िल का पता देते हैं