जहाँ पे मैं हूँ बस एक कुहरा-ज़दा फ़ज़ा है जिधर भी देखो सफ़ेद चादर टँगी हुई है नहीं है कोई ज़मीन ऐसी कि जिस पे में अपने पाँव रखूँ बुलंद-ओ-बाला पहाड़ों से हज़ारों पत्थर लुढ़क रहे हैं और आँधियाँ सीटियाँ बजाती गुज़र रही हैं क़दीम भूरी पहाड़ियों से वो कारवाँ भी तो टूट आया तलाश में जो न जाने किस की बहुत दिनों से भटक रहा था वो गर्ज़-बरदार सब फ़रिश्ते भी मर चुके हैं जो ख़ैर-ओ-शर पर निगाह रखने के वास्ते थे कोई भी मीज़ान नेक-ओ-बद की नहीं है क़ाएम यहाँ अब अपने क़याम की कोई साअ'त मो'तबर नहीं है उठाओ साहिल से कश्तियों को बहाओ का वक़्त हो गया है