मैं अपने अंदर किसी ख़ला में भटक रही थी उधड़ रही थी मगर वहाँ सिर्फ़ इक बदन था जो नाख़ुनों से वजूद से रूह छीलता था उधड़ती साँसों पे दाँत अपने चुभो रहा था मैं दर्द-ए-ज़ेह से भी सुर्ख़-रू हो के आने वाली मैं आशना-ए-अज़िय्यत-ए-तख़लीक़ इक तमस्ख़ुर से एक तज़हीक के गुमाँ से ख़ुद अपनी आहट की सिसकियों पर लरज़ रही थी दरिन्दगान-ए-वजूद लेकिन तमाम रिश्तों की गालियों में ख़ुद अपनी ता'मीर के धोएँ से यक़ीं की चादर चबा रहे थे वो दर्द-लम्हा ख़राश हो कर गुज़र रहा था वहाँ फ़क़त ज़ब्त मो'जिज़ा था ख़ुदा कहीं पास ही खड़ा था उसे कहाँ दर्द का पता था में अपने अंदर किसी ख़ला में भटक रही थी उधड़ रही थी