कभी हम ख़ूब-सूरत थे किताबों में बसी ख़ुश्बू की सूरत साँस साकिन थी बहुत से अन-कहे लफ़्ज़ों से तस्वीरें बनाते थे परिंदों के परों पर नज़्म लिख कर दूर की झीलों में बसने वाले लोगों को सुनाते थे जो हम से दूर थे लेकिन हमारे पास रहते थे नए दिन की मसाफ़त जब किरन के साथ आँगन में उतरती थी तो हम कहते थे अम्मी तितलियों के पर बहुत ही ख़ूब-सूरत हैं हमें माथे पे बोसा दो कि हम को तितलियों के जुगनुओं के देस जाना है हमें रंगों के जुगनू रौशनी की तितलियाँ आवाज़ देती हैं नए दिन की मसाफ़त रंग में डूबी हवा के साथ खिड़की से बुलाती है हमें माथे पे बोसा दो हमें माथे पे बोसा दो