बयान-ए-'ग़ालिब'-ए-रंगीं-नवा है क़लम शाइ'र का सज्दे में झुका है पए ताज़ीम सफ़-बस्ता हैं अल्फ़ाज़ दिल-ए-शाइ'र में इक तूफ़ाँ बपा है अक़ीदत उस से हर अहल-ए-नज़र को कि वो फ़िक्र-ओ-नज़र का रहनुमा है वो ग़ालिब वो शहंशाह-ए-मआ'नी वो 'ग़ालिब' जिस की अज़्मत ग़ैर-फ़ानी सलासत और फ़साहत अल्लाह अल्लाह कि दरिया-ए-सुख़न माँगे रवानी बहुत उस्ताद-ए-शह थे और होंगे मगर होगा न कोई उस का सानी ज़राफ़त उस की फ़ितरत का तक़ाज़ा मतानत उस के फ़िक्र-ओ-फ़न का जौहर मोहब्बत रूह उस की शाइ'री की कहाँ होंगे भला ऐसे सुख़नवर ज़माना किस लिए उस को मिटाता वो इंसाँ था न था हर्फ़-ए-मुकर्रर ज़बाँ उस की ज़बान-ए-ज़िंदगी है बयाँ उस का बयान-ए-आगही है