हम जानते हैं ये दुनिया हमें जीने नहीं देगी फ़ासले की दीवारें हम दोनों के दरमियान बढ़ती रहेंगी ये कैसा रिश्ता है हम दोनों अपने अपने एहसासात से वाक़िफ़ हैं मगर ये रस्म-ओ-रिवाज आदमी से आदमी की तफ़रीक़ के... हम दोनों महज़ अपनी आँखों के अलावा एक दूसरे को छू नहीं सकते आब-ए-ज़म-ज़म या गंगा-जल एक रंग, एक ख़ुमार और एक एहसास क्यूँ न हम दोनों एक आफ़ाक़ी रिश्ते से मुंसलिक हो जाएँ ऐसे रिश्ते से कि जहाँ तलवारें झुक जाती हैं और अंगारे बन जाते हैं फूल और नीला आसमान मुस्कुरा उठता है आओ आज तुम मेरी कलाई में ये राखी बाँध दो हम दोनों अपनी अपनी अनोखी चाहत के हवाले से बन जाएँ जन्म जन्म के साथी अटूट हो जाएँगे जब फिर शायद ज़माना उँगली नहीं उठा सकेगा!!