फ़ैज़ ले कर 'मीर' से आया हुआ देखिए इक शख़्स इतराया हुआ हर सुख़नवर से यही कहता है अब मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ मानता हूँ ये बजा है ठीक है उस ने जो जितना कहा है ठीक है ये नया उस्लूब लाए किस तरह शे'र में जिद्दत दिखाए किस तरह उस का हर इक लफ़्ज़ है माँगा हुआ यानी अब तक जो कहा है भीक है उस पे खुलते ही नहीं ग़म बाद के अह्द-ओ-अस्र-ए-ख़ानमाँ-बर्बाद के 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का ज़माना और है अहद-ए-हाज़िर का फ़साना और है उस को क्या मालूम क्या से क्या हुए हाए कितने हश्र हैं बरपा हुए उस को क्या मालूम ग़ुर्बत की घड़ी ख़्वाब सारे एक पल में मर गए उस को क्या मालूम छिन जाने का ग़म जान से प्यारे भी अपने न रहे उस को क्या मालूम है अक़सा का दुख जब निहत्तों पर भी मीज़ाइल चले उस को क्या मालूम कि कश्मीर में किस तरह से माओं के बेटे कटे उस को क्या मालूम सुनामी का दिन शहर पल में डूब कर मैदाँ बने उस को क्या मालूम नौ ग्यारह के बाद किस तरह के ज़ुल्म थे ढाए गए उस को क्या मालूम बम के ज़ोर पर जुर्म मज़लूमों से मनवाए गए उस को क्या मालूम कारोबार है जंग का मैदान बिकते असलहे हम सुनाएँ गर हुरूफ़-ए-आगही भूल जाए हर दलील-ए-शायरी उँगलियाँ कानों में दे कर ज़ोर से चीख़ मारे और मर जाए अभी