अब रात ढल रही है कोई दो का वक़्त है आँखों में नींद झूल रही है अभी तलक लेकिन मैं साल-ए-नौ के लिए जागता रहूँ उम्मीद के चराग़ जलाऊँ नए नए बैठा हूँ ख़ामुशी की नवाओं को छेड़ कर अपने ग़मों से आज भी फ़ुर्सत नहीं मुझे पलकों पे आज भी तो लरज़ते हैं ये दिए लेकिन उन्हीं ग़मों से नया आस्ताँ बना वज्ह-ए-सुकूँ है आज ख़याल-ए-गुरेज़-पा टूटे हुए दिलों को सहारा भी दे सका जब दिल की धड़कनों से मिले दर्स-ए-आगही फिर किस लिए जुनूँ में कोई इंतिशार हो ना-कामियाँ हयात की शरमा न जाएँगी इस देस की फ़ज़ाओं से गर हम को प्यार हो इन मय-कदों से कल भी न था मुझ को वास्ता जिन में लहू के जाम उठाते हैं हुक्मराँ एहसास की निगाह मगर देखती है अब कुछ और तेज़-गाम हुआ कारवान-ए-शौक़ और साल-ए-नौ भी साथ इसी कारवाँ के है इन झोंपड़ों में आज चराग़ाँ नहीं तो क्या दो-चार साल और भी इम्काँ नहीं तो क्या फ़स्ल-ए-बहार आएगी झूमेंगी डालियाँ फूलों में पात पात में रंगत समाएगी होंगे कभी तो जाम-ब-कफ़ ख़ास-ओ-आम सब हर हर निगाह साग़र-ओ-मीना उठाएगी ज़ुल्फ़-ए-हयात शौक़ से परचम उड़ाएगी मैं आज साल-ए-नौ के लिए जागता रहूँ उम्मीद के चराग़ जलाऊँ नए नए