सखी फिर आ गई रुत झूलने की गुनगुनाने की सियह आँखों की तह में बिजलियों के डूब जाने की सुबुक हाथों से मेहंदी की हरी शाख़ें झुकाने की लगन में रंग आँचल में धनक के मुस्कुराने की उमंगों के सुबू से क़तरा क़तरा मय टपकने की घनेरे गेसुओं में अध-खिली कलियाँ सजाने की बयाबाँ सब्ज़ा-ए-नौ-ख़ेज़ से आबाद होते हैं सखी तुम भी जो दिल अपना बसा लेतीं तो क्या होता हया है ख़ौफ़ है पिंदार है ज़िद है ये क्या शय है हमेशा इल्तिजाएँ राएगाँ जाती रहीं मेरी कभी मेरी ख़ुशी की भी दुआ लेतीं तो क्या होता ये कैसी आगही है जिस की मशअ'ल हाथ में ले कर सदा तन्हाइयों के देस में फिरती हो आवारा ये इक बीम-ए-शिकस्त-ए-ख़्वाब ये छू लूँ तो क्या होगा उसी से हो गई हर इशरत-ए-मौजूद सद पारा ब-जुज़ इक रूह-ए-नालाँ चश्म-ए-हैराँ उम्र-ए-सर-गर्दाँ नहीं तक़सीर-परवाज़-नज़र का कोई कफ़्फ़ारा क़रार-ए-क़ल्ब-ज़ार-ए-हिंद वार-ए-बरनाई-ए-यूनाँ तज़ल्ली-ए-आल-ए-इब्राहीम पर पैहम जो उतरी थी तड़पता शोला-गूँ ख़ूँ जाहिलियत की नवाओं का चमक रेग-ए-रवाँ की सर-बुलंदी नख़्ल-ए-सहरा की दयार-ए-'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' की उड़ती हुई ख़ुशबू निगाह-ए-'ग़ालिब'-ओ-'इक़बाल' की गेती-शिकन मस्ती सुरूर-ए-जुस्तजू मग़रिब की मतवाली हवाओं का सभी पाया मगर दरमान-ए-दर्द बेबसी मुश्किल ये इक आसूदगी चेहरे पे ये ठहराव आँखों में ये अश्कों से भरी छागल ये बे-पर्दा-ओ-ख़ुद-सर दिल चटानें दहर की आतिश को छू कर भी नहीं पिघलीं न जाने कौन से अज्ज़ा हैं इस उफ़्ताद में शामिल ये निर्मल जल का चश्मा ये दिल-ए-बे-क़ैद-ओ-बे-पायाँ उसे भी सम्त मिलती उस की भी इक रहगुज़र होती शबाब अपने जलाल-ए-हश्र-सामाँ की क़सम खाता शराफ़त बे-ज़बाँ फ़ितरत के दुख की चारागर होती न होती आरज़ू नैरंग-ए--हस्ती की तमाशाई वो उस बढ़ते हुमकते कारवाँ की हम-सफ़र होती