जाने किस की लौ का परतव पल पल जलती बुझती आँखें जाने किस की मध भरी मुस्कान का हीला डावाँ-डोल लरज़ती बस्ती इक बे अंत सा आलम है इक पैहम सी गर्दिश है इक अंधा सा हाला है और हाले में गुम-सुम रूहें आगाही का भारी पत्थर सर पर उठाए अदम-आगाही के महलों के दर खुलने की आशा बाँधे सदियों से लाइन में लगी हैं पहले किस की मुक्ती होगी