पुरानी बात है लेकिन ये अनहोनी सी लगती है सवाद-ए-शर्क़ का इक शहर तारीकी में डूबा था अचानक शोर सा उट्ठा ज़मीं जैसे तड़ख़ जाए नदी में बाढ़ आ जाए कोई कोह-ए-गिराँ जैसे जगह से अपनी हट जाए बड़ा कोहराम था ख़िल्क़त मताअ-ओ-माल से महरूम नंगे सर घरों से चीख़ कर निकली मगर आल-ए-सफ़ा-ओ-सिद्क़ के ख़ेमे नहीं उखड़े वो अपनी ख़्वाब-गाहों से नहीं निकले रिवायत है सफ़ा-ओ-सिद्क़ के बेटे हमेशा रात आते ही हिसार-ए-हम्द अपने चार जानिब खींच लेते थे मुक़द्दस आयतों को अपने पे दम कर के सोते थे रिवायत है बलाएँ उन के दरवाज़ों से वापस लौट जाती थीं सवाद-ए-शर्क़ का वो शहर उस शब ढेर था लेकिन सफ़ा-ओ-सिद्क़ की औलाद के ख़ेमे नहीं उखड़े