तुम्हें इस शहर से रुख़्सत हुए कितना ज़माना हो चुका फिर भी अभी तक मेरे कमरे में तुम्हारे जिस्म की ख़ुशबू का डेरा है ब-ज़ाहिर तो तुम्हारे ब'अद अभी तक मैं बहुत ही मुतमइन और शांत लगता हूँ मगर जब रात के पिछले पहर कमरे में आता हूँ तो जाने क्यूँ अचानक मेरी आँखों में नमी सी तैरने लगती है पलकें भीग जाती हैं और उस लम्हे न जाने क्यूँ मुझे शक सा गुज़रता है अजब इक वाहिमा सा मेरे दिल में सर उठाता है कि इस वीरान कमरे में कहीं दीवार-ए-गिर्या तो नहीं रख दी किसी ने!