ये माना चंद लम्हों की रिफ़ाक़त भी बहुत है आज कल लेकिन मिरे अंदर का सन्नाटा कभी देखो तो जानोगे कि मैं क्यूँ नींद की ख़ामोश तारीकी से डरता हूँ कई दिन से तो मैं ने ख़्वाब भी डर डर के देखे हैं जो सन्नाटे का आदी हो गया हो उस के कानों को ख़िज़ाँ में पेड़ से टूटे हुए पत्तों के गिरते वक़्त हल्की सी तड़पने की सदा भी अच्छी लगती है ये माना मैं अकेला-पन तो अपना बाँट ही लूँगा मगर कोई अधूरापन मिरा बाँटे तो मैं जानूँ सफ़र में ज़िंदगी के मैं ने देखा है अगर मिलता भी है कोई तो चुपके से किसी इक मोड़ पर वो छोड़ जाता है अभी तो ख़ैर से मंज़िल बुढ़ापे की नहीं आई अभी तो और भी कुछ मोड़ आएँगे बुढ़ापे में सहारे की ज़रूरत होने लगती है ये मिलने और बिछड़ने की ख़लिश ही इक सहारा है जिसे दिल मान लेता है वही है ए'तिबार 'आज़र' अगर ये भी नहीं होगा तो फिर उम्मीद क्या हो अपने जीने की