ये पगडंडी चलते चलते जंगल में से फिरती फिराती दूर हैं घने घने पेड़ों में छुपे इक मंदिर तक ले जाती है बहुत पुरानी काई-ज़दा सी सीढ़ी चढ़ कर मंदिर में जब दाख़िल हूँ तो फ़र्श के ऊपर बिखरे हुए कुछ पीले पत्ते मिलते हैं या कहीं कहीं पे जलती जलती आँखों वाले साँप दिखाई देते हैं दीवारों पर नक़्श पुराने मद्धम मद्धम बहुत पुराने क़िस्से ले कर जाग रहे हैं जिन से कुछ अनजानी सी ख़ुशबुएँ लिपटी हाँप रही हैं बीच में इक स्थान के ऊपर प्यारी सी इक मूरत है जो जन्म जन्म से सोचों के पाताल में डूबी जाग रही है कभी कभी इक छन-छन छन-छन हवा में तैरती जाती है और हौले हौले सिसकी बन कर बिखर बिखर सी जाती है फिर गहरी चुप में कोने से चमगादड़ कोई उड़ती है तो चुप की चीख़ें मंदिर की हर मूरत को दहलाती हैं जाने कब से ऐसा होता आया है ये गूँगा मंदिर पगडंडी को ख़ाली ख़ाली आँखों से यूँही देखता रहता है और पगडंडी इस गहरी चुप से तंग सी आ कर उल्टे क़दमों जंग में से फिरती फिराती वापस शहर को जाती है और कोलतार की सड़कों में खो जाती है