बहुत क़रीब से आई हवा-ए-दामन-ए-गुल किसी के रू-ए-बहारीं ने हाल-ए-दिल पूछा कि ऐ फ़िराक़ की रातें गुज़ारने वालो ख़ुमार-ए-आख़िर-ए-शब का मिज़ाज कैसा था तुम्हारे साथ रहे कौन कौन से तारे सियाह रात में किस किस ने तुम को छोड़ दिया बिछड़ गए कि दग़ा दे गए शरीक-ए-सफ़र उलझ गया कि वफ़ा का तिलिस्म टूट गया नसीब हो गया किस किस को क़ुर्ब-ए-सुल्तानी मिज़ाज किस का यहाँ तक क़लंदराना रहा फ़िगार हो गए काँटों से पैरहन कितने ज़मीं को रश्क-ए-चमन कर गया लहू किस का सुनाएँ या न सुनाएँ हिकायत-ए-शब-ए-ग़म कि हर्फ़ हर्फ़ सहीफ़ा है, अश्क अश्क क़लम किन आँसुओं से बताएँ कि हाल कैसा है बस इस क़दर है कि जैसे हैं सरफ़राज़ हैं हम सतीज़ा-कार रहे हैं जहाँ भी उलझे हैं शिआर-ए-राह-ए-ज़नाँ से मुसाफ़िरों के क़दम हज़ार दश्त पड़े, लाख आफ़्ताब उभरे जबीं पे गर्द, पलक पर नमी नहीं आई कहाँ कहाँ न लुटा कारवाँ फ़क़ीरों का मता-ए-दर्द में कोई कमी नहीं आई