दश्त-ए-बे-नख़ील में बाद-ए-बे-लिहाज़ ने ऐसी ख़ाक अड़ाई है कुछ भी सूझता नहीं हौसलों का साएबान रास्तों के दरमियान किस तरह उजड़ गया कौन कब बिछड़ गया कोई पूछता नहीं फ़स्ल-ए-ए'तिबार में आतिश-ए-ग़ुबार से ख़ेमा-ए-दुआ जला दामन-ए-वफ़ा जला किस बुरी तरह जला फिर भी ज़िंदगी का साथ है कि छूटता नहीं कुछ भी सूझता नहीं कोई पूछता नहीं और ज़िंदगी का साथ है कि छूटता नहीं