बताऊँ क्या जो रंग-ए-गर्दिश-ए-अय्याम है साक़ी जहाँ का ज़र्रा-ज़र्रा कुश्ता-ए-आलाम है साक़ी मआ'ज़-अल्लाह अब हर हर क़दम पर दाम है साक़ी गुलिस्ताँ में ये आज़ादी का फ़ैज़-ए-आम है साक़ी समझ सकता है कौन इस राज़ को जुज़ अहल-ए-मय-ख़ाना लिबास-ए-सुब्ह में कितनी भयानक शाम है साक़ी क़फ़स कैसा नशेमन क्या ये सब कहने की बातें हैं न जब आराम था साक़ी न अब आराम है साक़ी अजम बे-बहरा-ए-ईमाँ अरब बे-बहरा-ए-दानिश ब-ईं-आग़ाज़ दोनों का बुरा अंजाम है साक़ी सितम ये है कोई शीशा-गरों को कुछ नहीं कहता मिरी ख़ारा-शिगाफ़ी मोरिद-ए-इल्ज़ाम है साक़ी हिजाबात-ए-तसव्वुर में अभी है मिल्लत-ए-आदम अभी इंसाँ शिकार-ए-ला'नत-e-अक़्वाम है साक़ी अभी मरदूद-ए-दरगाह-ए-ख़िरद है ताबिश-ए-ईमाँ अभी मक़्बूल-ए-आलम ज़ुल्मत-ए-औहाम है साक़ी अभी प्यासों ने पाई ही नहीं है राह-ए-मय-ख़ाना ख़िरद की कोशिश-ए-पैहम अभी नाकाम है साक़ी उलझ कर रह गए हैं मुद्दइ'यान-ए-रुबूबिय्यत ख़याल-ए-ख़ाम बिल-आख़िर ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी चराग़-ए-राह बन कर रहबरी की जिस सहीफ़े ने वो जुज़दानों के शीशे में चराग़-ए-बाम है साक़ी तिरा ये रिंद-ए-सर-गश्ता जिसे 'फ़ारूक़' कहते हैं इसी तन्क़ीद के चलते बहुत बदनाम है साक़ी ख़त-ए-पैमाना अरक़-ए-मौज-ए-सहबा होता जाता है इजाज़त हो कि अब आगे ख़ुदा का नाम है साक़ी