कैसा लगता है अब जब हो गए हैं एक जैसे चारों ओर छोर सारबानों के कहीं बैठते उठते मुड़ते टूटते सर हैं न ऊँटों के गले की घंटियों की दूरियों के दरियाओं में धीरे धीरे डूबती गूँजें न कहीं ख़च्चरों पे बैठीं ख़्वाब बुनतीं ख़ाना-ब-दोश दोशीज़ाएँ जिन के बिरहे सुनने ठहर जाता था सावन तुम्हारे सहन में भी शौक़ की तकमील करने शुतर पर शब ही की शब में दरियाई सहराई सफ़र कर लौटने वाले दिलावर भी नहीं कुछ भी नहीं पसरती सम्तों में घूरती तन्हाइयों को ज़र्द आँखें तुम्हारी पल पल फैलती जाती एक पीली साएँ साएँ