संग-ए-जाँ By Nazm << जिस्म और साए मनफ़ी शुऊर का इक वरक़ >> आब-ए-ख़ुफ़्ता में इक संग फेंका तो है दाएरे सतह-ए-साकित पे उभरे हैं फैलेंगे मिट जाएँगे और वो संग-ए-जाँ अपनी ये दास्ताँ ज़ेर-ए-बार-ए-जुमूद-ए-गराँ एक संग-ए-मलामत की मानिंद दोहराएगा Share on: