दश्त-ए-इम्कान में जारी है सराबों का सफ़र एक सहरा-ए-जुनूँ हद्द-ए-नज़र है हाइल शाख़-ए-ज़ैतून पे आवाज़ का पंछी घायल दौर-ए-पाज़ेब की छम छम है चमकती शय है रह-गुज़र कोई नहीं धुँद के मंज़र के सिवा इक तिरी यादों के सिवा हर तरफ़ रेत के उठ्ठे हैं बगूले हातिम नक़्श-ए-पा कोई नहीं ख़ून के क़तरों के सो इक सदी बीत गई एक ज़माना गुज़रा अब यक़ीं कैसे हो होंट तिश्ना हैं मिरे ख़ुश्क गिला है अब भी हर तरफ़ कर्ब-ओ-बला है अब भी दश्त-ए-इम्कान में जारी है सराबों का सफ़र