''ना-गहाँ'' और ''बे-निहायत'' से अगर पीछे हटोगी तो तुझे मालूम होगा ना-गहाँ तो मैं हूँ, लेकिन कौन था वो बे-निहायत कोई पिछ्ला जिस ने तुझ को मुझ से पहले तेरी कच्ची उम्र में यूँ चीर कर ज़ख़्मी किया था तू तड़पती रह गई थी और ये कड़वा-कसीला ज़हर सोते जागते ख़्वाबों में अमृत जान कर पीती रही है क्यूँ भला? क्यूँ ''नूर'' ''नग़्मे'' या किसी ''हर्फ़-ए-तसल्ली'' से तरह नार्स ख़ला ख़ाली रहा इतने दिनों तक? और अब फिर तू आज अगर इक ना-गहानी हादसे में ना-गहाँ से आ मिली है अपनी पक्की उम्र में तो यूँ समझ जैसे कि कच्ची और पक्की दोनों उम्रों में कोई निस्बत नहीं है पूछ ख़ुद से एक चौथाई सदी के बाद फिर क्यूँ जुस्तुजू है तुझ को उस ज़ालिम दरिन्दा-सिफ़त की, जिस को ये कह कर छोड़ आई थी झटक कर, ''एक वहशी जानवर हो बे-निहायत तुम से नफ़रत है मुझे'' ''ना-गहाँ'' क्या ''बे-निहायत'' की तरह वहशी नहीं था? हाँ, मगर वो जानवर शायद नहीं था (जानवर, तुम जानती हो, चीरते हैं, फाड़ते हैं!) इस लिए अब तजरबा वो अपनी पक्की उम्र में दोहरा के ख़ुद ''हर्फ़-ए-तसल्ली'' का सहारा चाहती हो? ख़ुद से पूछो, क्या ये सच्चाई नहीं है?