लो गजर बज गया सुब्ह होने को है दिन निकलते ही अब मैं चला जाऊँगा अजनबी शाह-राहों पे फिर कासा-ए-चश्म ले ले के एक एक चेहरा तकूँगा दफ़्तरों कार-ख़ानों में तालीम-गाहों में जा कर अपनी क़ीमत लगाने की कोशिश करूँगा मेरी आराम-ए-जाँ मुझ को इक बार फिर देख लो आज की शाम लौटूँगा जब बेच कर अपने शफ़्फ़ाफ़ दिल का लहू अपनी झोली में चाँदी के टुकड़े लिए तुम भी मुझ को न पहचान पाईं तो फिर मैं कहाँ जाऊँगा किस से जा कर कहूँगा कि मैं कौन था किस से जा कर कहूँगा कि मैं कौन हूँ