साँवले जिस्म की हर क़ौस में लहराता है मुस्कुराती हुई शामों का सलोना जादू रक़्स करती है तिरे हुस्न की रा'नाई में वादी-ए-नज्द के झोंकों की लजीली ख़ुश्बू ये तिरे दोश पे बल खा के बिखरती ज़ुल्फ़ें जैसे मा'बद में सुलगते हुए संदल का धुआँ जैसे मग़्मूम मुसव्विर के सियह-पोश ख़याल जैसे मौहूम जज़ीरों की छबेली परियाँ तू वो बरसात की घनघोर घटा है जिस में एक कैफ़ियत नग़्मात छुपी बैठी है दूधिया हुस्न से उक्ता के मिरी नज़रों ने जब भी देखा है तिरे रंग का भरपूर निखार गूँज उठी ज़ेहन में उड़ते हुए भंवरो की सदा रच गई रूह में गाती हुई कोयल की पुकार कौन है जिस ने तिरा ज़िक्र न छेड़ा हो कभी अब तो हर बज़्म का है एक ही मौज़ू-ए-सुख़न कोई देता है लक़ब लैला-ए-बे-महमिल का कोई कहता है तुझे प्यार से काली नागिन कौन सा लफ़्ज़ तिरे वास्ते ईजाद करूँ सोचता हूँ तुझे किस नाम से मैं याद करूँ