बसों का शोर धुआँ गर्द धूप की शिद्दत बुलंद ओ बाला इमारात सर-निगूँ इंसाँ तलाश-ए-रिज़्क़ में निकला हुआ ये जम्म-ए-ग़फ़ीर लपकती भागती मख़्लूक़ का ये सैल-ए-रवाँ हर इक के सीने में यादों की मुनहदिम क़ब्रें हर एक अपनी ही आवाज़-ए-पा से रू-गर्दां ये वो हुजूम है जिस में कोई फ़लक पे नहीं और इस हुजूम-ए-सर-ए-राह से गुज़रते हुए न जाने कैसे तुम्हारी वफ़ा करम का ख़याल मिरे जबीं को किसी दस्त-ए-आश्ना की तरह जो छू गया है तो अश्कों के सोते फूट पड़े सुमूम ओ रेग के सहरा में इक नफ़स के लिए चली है बाद-ए-तमन्ना तो उम्र भर की थकन सर-ए-मिज़ा सिमट आई है एक आँसू में ये वो गुहर है जो टूटे तो ख़ाक-ए-पा में मिले ये वो गुहर है जो चमके तो शब-चराग़ बने