ज़हमत-कश-ए-हिज्राँ का दिल और दुखाते हैं ये कह के मुझे लोग अब दीवाना बनाते हैं वो आते हैं आते हैं वो आते हैं आते हैं लेकिन वो कहाँ आए आते हैं न आएँगे छिटके हुए तारे भी अब डूबते जाते हैं वो रात भयानक और ज़ुल्फ़ों की तरह काली होती ही रही जिस में जज़्बात की पामाली ता आँ-कि हुई ज़ाहिर मशरिक़ की तरफ़ लाली लेकिन वो कहाँ आए आते हैं न आएँगे छिटके हुए तारे भी अब डूबते जाते हैं जलते हुए दीपक भी ख़ामोश हुए आख़िर उड़ते हुए जुगनू भी रू-पोश हुए आख़िर परवाने अजल से हम-आग़ोश हुए आख़िर लेकिन वो कहाँ आए आते हैं न आएँगे छिटके हुए तारे भी अब डूबते जाते हैं चहके वो परिंदे वो मुर्ग़ान-ए-सहर बोले उड़ने के लिए अब वो तय्यार हैं पर तोले हम बैठे के बैठे हैं ग़म-ख़ाने का दर खोले लेकिन वो कहाँ आए आते हैं न आएँगे छिटके हुए तारे भी अब डूबते जाते हैं मस्जिद के मिनारों से वो बांग-ए-अज़ाँ आई दरबार-ए-इलाही में अब होगी जबीं-साई जो रात थी पर्बत सी वो घट के बनी राई लेकिन वो कहाँ आए आते हैं न आएँगे छिटके हुए तारे भी अब डूबते जाते हैं बेताबी-ए-दिल मेरी और वो शब-ए-तन्हाई पत्ता जो कभी खड़का आहट जो कभी आई 'नजमी' यही समझा मैं तक़दीर उन्हें लाई लेकिन वो कहाँ आए आते हैं न आएँगे छिटके हुए तारे भी अब डूबते जाते हैं