तश्त-ए-महताब में हिज्र के ख़्वाब में दिल जहाँ भी गया लम्हा लम्हा जला वस्ल की ख़्वाहिशें ख़ाक में ख़ाक होती रहीं बर्ग-ए-गुल नम-ज़दा ग़म-ज़दा ग़म-ज़दा कह उठा मैं चला ओस के मोतियों को हवा खा गई ज़ख़्म-ए-आवारगी दामन-ए-दिल में चुप-चाप हँसता रहा सब पुराने नए कितने मौसम गए धुँद की उस तरफ़ सारे मंज़र वही मुंतज़िर सफ़-ब-सफ़ नींद में कोई चुप-चाप चलता रहा जिस को मिलना था कहीं कोई ख़ंदा-जबीं एक चेहरा हसीं वो सफ़ीना सा उम्मीद का ग़म की तज्दीद का दूर ही दूर होता रहा हिज्र का ताज सर पर सजाते हुए कोई तन्हा था तन्हा है तन्हा रहा