कोई दस्तक मुसलसल है कहीं है मुस्तक़िल आहट हवा का शोर है शायद कभी महसूस होता है सुनहरे ख़ुश्क पत्तों में से गुज़रा साँप का जोड़ा परिंदा कोई सहमा है फ़ज़ा में सरसराहट है मिरे अंदर भटकती है कोई आवाज़ या शायद बुलातीं हैं मुझे उस दम बिछड़ने वालों की यादें वो जिन पर ज़िंदगी इक ख़ौफ़ की सूरत मुसल्लत है कभी के हार के या ज़िंदगी से रूठ बैठे जो कभी यूँ लगता है जैसे किसी तारीक बस्ती में चली आँधी क़ज़ा आई अजल शायद मिरी खिड़की तलक बिस्तर तलक आई सितारे डूबने को हैं अंधेरा बैन करता है ख़ुदाया नींद का ग़लबा दिये की लौ भड़कती है बुझा कर आख़िरी लम्हा