रात है बुर्दा-फ़रोश उस के बहकाए हुए होश में कब आए हैं अपने आँचल के सितारे भी जो नीलाम करे उस की बाँहों में जो बहका है वो सँभला ही नहीं उस की बातों में जो आया वो कभी सोया नहीं जिस के पैकर को हवा ने भी कभी मस न किया रात पुरकार फ़ुसूँ-ज़ार और आशुफ़्ता-मिज़ाज जिस की आँखों को किसी ख़्वाब ने बोसा न दिया ऐसी दिलकश कि मिसाल उस की मुहाल जिस से हम-ख़्वाब हो बे-ख़्वाबी मुक़द्दर उस का जिस के हम-राह चले ख़ुद को भुला देता है उस के बहकाए हुए 'हाफ़िज़' ओ 'रूमी' ओ 'तबरेज़' हुए