दस्त-ए-शफ़क़त कटा और हवा में मुअल्लक़ हुआ आँख झपकी तो पलकों पे ठहरी हुई ख़्वाहिशें धूल में अट गईं शहर-ए-बीना की सड़कों पे ना-बीना चलने लगे एक नादीदा तलवार दिल में उतरने लगी पाँव की धूल ज़ंजीर बन कर छनकने लगी और क़दम सब्ज़-रू ख़ाक से ख़ौफ़ खाने लगे ज़ेहन में अजनबी सरज़मीं के ख़यालात आने लगे सारे ना-बीना इक दूसरे का सहारा बने सर पे काँटों भरा ताज और हाथ में मोतिए की छड़ी थाम कर दूर से आने वाली सदा के तआ'क़ुब में यूँ चल पड़े जैसे उन का मसीहा इसी सम्त हो जैसे उन के मसीहा की आँखों में सिर्फ़ उन की तस्वीर हो जैसे उन के ख़यालों में खिलती ज़मीं उन की जागीर हो