हम तो यूँ भी बाज-गुज़ार थे सदियों के हम तो कितनी ही नस्लों से आप की कितनी ही नस्लों को हक़्क़-ए-नमक में अपने ईमान और अना का नज़राना देते आए थे हम ने तो अपने हिस्से में महल-सरा के पिछवाड़े की धूल चुनी थी और राहों में उड़ने वाले कुछ तिनके भी जिन से घोंसले बन सकते थे महल-सरा को इन तिनकों से क्या ख़तरा था फिर क्यूँ आप ने शाह-ए-वाला चीलों कव्वों और गिधों को छोटे छोटे घोंसले नोचने पर मामूर किया है ऐसा क्यूँ है शाह-ए-वाला हम सदियों के बाज-गुज़ार तो शहर-ए-पनाह से बाहर हैं लेकिन चीलें कव्वे और गिध शहर-ए-पनाह के अंदर हैं शहर-ए-पनाह की इस तक़्सीम में किस का हाथ है शाह-ए-वाला