उतरता जाता है रग रग में ज़हर-ए-नौमीदी नज़र को मिलती है हर सम्त नक़्श नक़्श में यास दिल-ओ-दिमाग़ का आलम सुकूत से पुर है वो इंतिहा कि ख़मोशी का पहरा है जिस पर अभी से क्यों मिरी तक़दीर हो गई मुझ को क़दम क़दम पे मिली ज़िंदगी अदू बन कर अभी तो मेरे ख़यालों को और रोना था स्याह राह-ए-तसव्वुर पे छाई तो लेकिन कुछ इस तरह कि सितारों की नींद ही न खुली तमाम रात मैं दुख की तलाश करता रहा सहर हुई तो तख़य्युल की वादियों में मुझे शजर शजर पे नई कोफ़्त के धुँदलके मिले मिरा नसीब कि फिर भी फ़ुग़ाँ न कर पाया मिरे ख़याल ये क्या हादिसा हुआ आख़िर ज़माना तकता है हैरत से यूँ मुझे जैसे इक अजनबी से मुसव्विर का शाहकार हूँ मैं