शाम है लम्बी गलियों में ऊँचे मकानों की दीवार पर फैलते साए हैं दूर उफ़ुक़ पर सियह-रंग बादल के पीछे सुलगती हुई धूप है ऐसे ही तेरे जीवन का ढलता हुआ रूप है इस हवा में तिरे दर्द का गीत है उन दरख़्तों के गिरते हुए आँसुओं में किसी और का ग़म नहीं एक तेरे सिवा कोई मातम नहीं एक लम्हे में ये जगमगाते हुए शोख़ रंग इक धुआँ बन के उड़ जाने वाले हैं इन की दमकती कली बुझने वाली है वो तीरगी छाने वाली है जब तेरा एहसास तुझ से बिछड़ के घने और बे-नाम जंगल में खो जाएगा तू यहाँ आरज़ू की चिता पे खड़ी रोएगी