शनाख़्त उस के नाम से थी जिस्म की बहार से शनाख़्त आफ़्ताब से थी ज़ुल्फ़-ए-आबशार से शनाख़्त पैरहन से थी ग़ज़ाल-ए-नूर-बार से शनाख़्त उस के शबनमी फ़िशार आतिशीं से थी ज़मीन-दोज़ आसमाँ-सिफ़त ख़ुमार से खुली हुई थी दूर दूर तक तबस्सुमों की सुर्ख़ धूप तेज़ रौशनी तमाम शफ़क़तों की नर्म चाँदनी मलाइक-ओ-नुजूम आज सारे बे-मुराद हो गए शनाख़्तें उजड़ गईं सुलगते बाम-ओ-दर के दरमियाँ शुमार हो रहे हैं सोख़्ता बुरीदा जिस्म रेज़ा रेज़ा कुछ मकाँ वो बे-शनाख़्त हो गई वो ख़्वाब थी वो इक हसीन नाम थी वो नाम से बिछड़ गई