अगर इस गुलशन-ए-हस्ती में होना ही मुक़द्दर था तो मैं ग़ुंचों की मुट्ठी में दिल-ए-बुलबुल हुआ होता गुनाहों में ज़रर होता, दुआओं में असर होता मोहब्बत की नज़र होता, हसीनों की अदा होता फ़रोग़-ए-चेहरा-ए-मेहनत, ग़ुबार-ए-दामन-ए-दौलत नम-ए-पेशानी-ए-ग़ैरत, ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा होता हुआ होता किसी दस्तार-ए-कज पर फूल की तरह और उस दस्तार-ए-कज की तमकनत पर हँस रहा होता किसी मग़रूर की गर्दन पे होता बोझ एहसाँ का किसी ज़ालिम के दिल में दर्द हो कर ला-दवा होता किसी मुनइम के चेहरे पर ख़ुशी हाजत-रवाई की किसी नादार की नज़रों में शर्म-ए-इल्तिजा होता किसी भटके हुए राही को देता दावत-ए-मंज़िल बयाबाँ की अँधेरी शब में जोगी का दिया होता किसी के कल्बा-ए-अहज़ाँ में शम्-ए-मुज़्महिल बन कर किसी बीमार मुफ़्लिस के सिरहाने रो रहा होता शरर बन कर किसी नादार घर के सर्द चूल्हे में ''ब-सद उम्मीद-ए-फ़र्दा'' ज़ेर-ए-ख़ाकिस्तर दबा होता यतीम-ए-बे-नवा की रह-गुज़र पर अशरफ़ी बन कर लईम-ए-फ़ाक़ा-कश की जेब-ए-मुम्सिक से गिरा होता नियस्तां से निकल कर हसरत-आबाद-ए-तमद्दुन में गदा-ए-पीर ओ ना-बीना के हाथों का असा होता शिकस्ता झोंपड़े में बाँसुरी-ए-दहक़ाँ की सुर बन कर सुकूत-ए-नीम-शब में राज़-ए-हस्ती कह रहा होता ग़रज़ इस हसरत-ओ-अंदोह-ओ-यास-ओ-ग़म की बस्ती में कहीं दौर-आफ़रीं होता, कहीं दर्द-आश्ना होता ''डुबोया मुझ को होने ने'' बाक़ौल-ए-ग़ालिब-ए-दाना ''न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता''