वही सब था वही ग़म था वही रब था वही अतवार-ए-कौकब थे वही दस्तूर नख़शब था वही सब था मगर इस बार रो लेने की आज़ादी भी मुझ से छिन गई ऐसे कि ये कहना पड़ा पिछले दुखों में इक सुख तो था कम-अज़-कम रोने के ख़ुफ़िया तरीक़े सोचना मुझ को न पड़ते थे मुझे कहना पड़ा आख़िर कि शायद पहले ही सर्कस में मैं कुछ उस से बेहतर थी मैं इस सर्कस में गीदड़ हूँ मगर मैं साबिक़ा सर्कस में मिट्टी की सही पर शेरनी थी मैं