उदास सी थी वो शाम कितनी कि उस की ताज़ा लहद पे जिस दम ब-चश्म-ए-नम मैं खड़ा हुआ था बबूल-ए-कोहना की पत्तियों में इक टिमटिमाता हुआ सितारा न जाने कैसे ठहर गया था धड़कते दिल से मैं सोचता था थी कैसी नाज़ुक वो मेरी साथी मिज़ाज कितना था उस का ऊँचा कि जामा-ज़ेबी थी ख़त्म उस पर मुदाम ख़ुश्बू में महकी रहती वो आज लेकिन क़ज़ा की ज़द पर पड़ी हुई है ख़मोश कैसे हज़ार-हा कंकरों के नीचे किसे ख़बर है कि हश्र क्या है बदन का उस के बदन जो सीमीं था मरमरीं था